सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ ने
6:1 की बहुमत से से बड़ा फैसला
राज्यों को आरक्षण के लिए कोटा के भीतर कोटा बनाने का अधिकार है मतलब अब राज्य सरकार SC, ST के श्रेणियों के लिए सब कैटगरी बना सकती है ,
सुप्रीम कोर्ट का दलित आरक्षण पर नवीनतम फैसला हाल ही में सोशल मीडिया और विभिन्न मीडिया प्लेटफार्मों पर चर्चा का विषय बना हुआ है। इस निर्णय ने न केवल कानूनी और संवैधानिक मुद्दों को उभारा है, बल्कि भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच आरक्षण के महत्व और इसकी सीमाओं पर भी बहस को प्रज्वलित किया है।
कोटा के भीतर कोटा क्या है
आरक्षण का लाभ समाज के सबसे पिछड़े और जरूरतमंद समूहों तक पहुंचे, जो आरक्षण प्रणाली के
तहत भी उपेक्षित रह जाते हैं. इसका उद्देश्य आरक्षण के बड़े समूहों के भीतर छोटे, कमजोर वर्गों का अधिकार सुनिश्चित करना है
निर्णय की पृष्ठभूमि
वर्तमान में भारत में अनुसूचित जाति (SC) के तहत आरक्षण केवल हिंदू, सिख और बौद्ध दलितों के लिए उपलब्ध है। 1950 के संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश के अनुसार, प्रारंभ में केवल हिंदुओं को ही इस श्रेणी में रखा गया था। 1956 में इसमें सिखों को शामिल किया गया और 1990 के दशक में बौद्धों को भी शामिल किया गया【7†source】【8†source】।
मुख्य मुद्दे
सुप्रीम कोर्ट में यह मामला 2004 से लंबित है, जब कई याचिकाकर्ताओं, जिनमें गैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन भी शामिल है, ने यह तर्क दिया था कि अनुसूचित जाति की श्रेणी को केवल कुछ धर्मों तक सीमित रखना धार्मिक भेदभाव के समान है। हाल ही में, केंद्र सरकार ने इस मामले पर प्रतिक्रिया देने के लिए अक्टूबर 2024 तक का समय मांगा है【7†source】【8†source】।
विवाद का सार
इस विवाद का मुख्य मुद्दा यह है कि क्या मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। कई अंबेडकरवादी कार्यकर्ताओं का मानना है कि मुस्लिम और ईसाई दलितों को इस श्रेणी में शामिल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे पहले से ही अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के तहत आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, उनका यह भी तर्क है कि इस्लाम और ईसाई धर्म जाति-आधारित भेदभाव को नहीं मानते, जबकि हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है【7†source】【8†source】।
संवैधानिक और सामाजिक दृष्टिकोण
आरक्षण के समर्थकों का कहना है कि आरक्षण धर्म-निरपेक्ष होना चाहिए और सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर प्रदान किया जाना चाहिए, न कि धर्म के आधार पर। इस विचारधारा के अनुसार, धार्मिक परिवर्तन के बावजूद दलितों को उनकी सामाजिक स्थिति के आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर खालिद अनिस अंसारी का मानना है कि अगर सिख और बौद्ध दलित आरक्षण का लाभ उठा सकते हैं, तो मुस्लिम और ईसाई दलितों को इससे वंचित क्यों किया जाना चाहिए【8†source】।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
इस निर्णय का भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। अनुसूचित जाति श्रेणी में मुस्लिम और ईसाई दलितों को शामिल करने की मांग को कुछ राजनीतिक दलों द्वारा समर्थन मिला है, जबकि अन्य दल इसका विरोध कर रहे हैं। इस मुद्दे ने अंबेडकरवादी विचारधारा के भीतर भी विभाजन पैदा कर दिया है, जिसमें कुछ लोग इसे दलितों के अधिकारों के विस्तार के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य इसे अनुसूचित जाति के आरक्षण प्रणाली के मूल सिद्धांतों के खिलाफ मानते हैं(7†source)(8†source)।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। यह निर्णय भारत में आरक्षण प्रणाली की वर्तमान स्थिति और इसके भविष्य को निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही, यह बहस यह भी दर्शाती है कि भारतीय समाज में जाति और धर्म के मुद्दे कितने गहरे और जटिल हैं।
यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में यह मुद्दा कैसे विकसित होता है और इसके प्रभाव समाज के विभिन्न वर्गों पर कैसे पड़ते हैं। इस विवाद के समाधान के लिए एक समग्र और न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक होगा, जो सभी वर्गों के अधिकारों और आवश्यकताओं को समान रूप से ध्यान में रखे।